ध्यान क्या है ? Dhyan kya hai | Dhyan Karne Se Kya Hota Hai

ध्यान का स्वरूप तथा प्रकार

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ध्यान का अर्थ है– तल्लीनता, तन्मयता अपने ध्येय में बिल्कुल खो जाना। अपनी सुध-बुध भुला देना। केवल अध्यात्म पथ का पथिक ही अपने आपको ध्यान या साधना में तल्‍लीन करता हो, ऐसी बात नहीं है, अपितु कोई भी व्यक्ति, जो अपने ध्येय को पाना चाहता है, उसे एक साधक की भांति तन्मय होना ही पड़ता है।

कोई विद्यार्थी हो, वैज्ञानिक हो, संगीतज्ञ हो, या अन्य किसी भी कला की प्राप्ति का इच्छुक हो, वह भी पूर्ण तन्मय होकर अपनी कला की साधना करता है। उस समय वह भी अपने आप को भुला देता है अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसका यह समर्पण उसकी तन्मयता ही उसे उसके लक्ष्य की प्राप्ति कराती है।

यहाँ एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि यह तल्लीनता तुम्हें एकदम या प्रारम्भ में ही प्राप्त नहीं होगी, अपितु धीरे-धीरे होगी। सम्भवतः: इसमें लम्बा समय भी लग सकता है। जब लौकिक विद्याओं अथवा कलाओं की प्राप्ति की साधना में वर्षों लग जाते हैं तो आध्यात्मिक साधना में तो यह अपरिहार्य ही है।

ध्यान क्या है dhyan kya hai

इसलिए साधक को श्रद्धा-पूर्वक साधना में लगे रहना चाहिए। मन की चंचलता तथा उसके कारण ध्यान की अपरिपक्वता को देखकर न तो निराश होना चाहिए, तथा न ही साधना को बीच में ही छोड़ देना चाहिए। निश्चय रखिए कि आपका विश्वास, आपकी श्रद्धा आपको अपने लक्ष्य तक पहुँचा ही देगी।

श्रद्धा में अद्भुत शक्ति है, तथा विश्वास में अदम्य स्थिरता है। इन दोनों के बल
पर आप अपने लक्ष्य के. प्रति आशावान्‌ तथा क्रियाशील रहेंगे। केवल आपको यह करना है कि अपनी साधना को निरन्तर चलने में उसमें कभी व्यवधान उत्पन्न न हो, ऐसा यत्न करें। यदि परिस्थिति वश कभी किसी समय थोड़ा-बहुत व्यवधान आ भी जाता है तो उसकी कमी को दूसरे समय में पूरा कर लें।

ध्यान क्रिया

ऐसा न करें कि कई बार व्यवधान आने पर प्रयत्न शिथिल कर दें। जिस प्रकार एक समय भी भोजन न मिलने पर दूसरे समय शरीर तथा मन भोजन पाने को अति तुर रहते हैं, इसी प्रकार एक-आध समय साधना में व्यवधान उत्पन्न होने पर दूसरे समय में उस कमी की पूर्ति कर लेनी चाहिए।

यदि इस प्रकार बिना नागा किए आप श्रद्धा-पूर्वक dhyan या साधना करते हरेंगे तो विश्वास कीजिए कि एक न एक दिन सफलता को प्राप्त कर ही लेंगे। हाँ, यह सम्भव है कि इसमें लम्बा समय लग जाए। वर्षों तक साधना करनी पड़े, तथापि आप निरतर अपनी साधना करते रहें। भगवान्‌ कृष्ण कहते हैं-न हि कल्याणकृत्‌ कश्चिद्‌ दुर्गतिं तात गच्छति। कल्याण के पथ का पथिक कभी भी दुर्गति को प्राप्त नहीं करता। उसका कल्याण अवश्यमेव होता है। *

ध्यान के दो रूप हैं-लौकिक तथा पारलौकिक इन्हें ही दूसरे शब्दों में भौतिक तथा आध्यात्मिक भी कह सकते हैं। दोनों में ही तन्मयता आवश्यक है। इसके बिना लक्ष्य की सिद्धि हो ही नहीं सकती तथा यदि साधक इनमें तल्लीन हो गया तो अपने लक्ष्य को पाकर ही रहेगा। लक्ष्य चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक। मैडिटेशन की रिपक्वता यह है कि dhyan करते समय कोई दूसरी वस्तु दिखलायी ही न दे, वह बिल्कुल तिरोहित हो जाए।

लोकिक ध्यान का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण अर्जुन का दिया जा सकता है। जब उसे वृक्ष पर कृत्रिम रूप में बनायी गयी चिंडिया की आँख पर निशाना लगाने के लिए कहा गया तो बाण चलाने से पूर्व गुरु द्रोणाचार्य ने पूछा कि वृक्ष पर क्या देख रहे हो।अर्जुन का उत्तर था-मुझे केवल चिड़िया की आँख दिखलायी दे रही है।

आश्चर्य की बात थी कि अर्जुन को आँख के सिवाय, वह वृक्ष, उसके पत्ते, उसकी शाखाएं वहाँ पर बैठी चिड़ियाँ, कुछ भी दिखलायी नहीं दिया। जबकि अन्य जकुमारों को सबकुछ दिखलायी दे रहा था। यद्यपि यह लौकिक dhyan था, .. किन्तु अपनी पूर्ण परिपक्वत अवस्था में था।

एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में अन्वेषण करते हुए उसमें कितना तल्लीन हो जाता है, इसका अनुमान भी हम नही कर सकते। जब लौकिक विद्याओं की प्राप्ति के लिए, उसमें निपुणता प्राप्त करने के लिए इतनी साधना करनी पड़ती है तो ध्यात्मिक ध्यान की परिपक्वता के लिए कितनी साधना करनी पड़ेगी, इसका अनुमान आप लगा सकते हैं। यदि हम मैडिटेशन या साधना करते हुए बाह्य विचारों में ही लझे रहकर अपने मन को किल्कुल खाली नहीं कर सकते तो हमारा ध्यान परिपक्व नहीं होगा।

इसलिए यह आवश्यक है कि हम ध्यान का अभ्यास करते समय अपने मन को बिल्कुल खाली करके, अपने ध्येय के प्रति समर्पित होकर अपनी साधना में इतने तललीन हो जाएं कि हमें अपनी सुधबुध न रहे। आध्यात्मिक dhyanके भी दो रूप हैं। एक का लक्ष्य लौकिक ही होता है, जबकि दूसरे का लक्ष्य विशुद्ध रूप में आध्यात्मिक!

ध्यान की विशेषताओं

ध्यान योगदर्शन में वर्णित योग का सप्तम अंग है। समाधि इसके बिल्कुल निकट ही है। ध्यान से पूर्ववर्त्ती छह अंगों का अभ्यास किये बिना dhyan में प्रवेश हो ही नहीं सकता। dhyan से पूर्व धारणा का सुदृढ़ होना अति आवश्यक है। यह धारणा ही परिपकव होकर dhyan का रूप ले लेती है।

यह ध्यान विशुद्ध रूप मे आध्यात्मिक है तथा समाधि एवं मोक्ष का हेतु है। इसे क्रमबद्ध रूप में दीर्घ साधना के उपरान्त ही प्राप्त किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।

आध्यात्मिक ध्यान का ही दूसरा स्वरूप वह है जो कि आजकल लोक-प्रचलित है। इसमें योग के सभी अंगों का पूर्ण पालन न करके सीधे हो ध्यान लगाने का यत्त किया जाता है या कराया जाता है। लोगों के लिए यही रुचिकर है, क्योंकि भोगासंक्त जनता को यम-नियम-प्रत्याहार आदि का पालन दुष्कर कार्य लगता है। लोगों की मांग पर योग-प्रचारकों ने भी सहज ध्यान, प्रेक्षा dhyan, विपश्यना आदि सुविधाजनक क्रियाएं dhyan के नाम पर विकसित करली है।

आजकल इनका ही प्रचार अधिक हो रहा है। यह ध्यान निरुपयोगी तो नहीं, किन्तु पूर्ण लाभप्रद भी नहीं है। इससे वास्तविक लक्ष्य अर्थात्‌ आत्म दर्शन की प्राप्ति तो नहीं हो सकती, हाँ अनेक सुपरिणाम अवश्य मिल जायेंगे। यथा-इसके द्वारा मानसिक शक्ति को केन्द्रित तथा नियंत्रित किया जा सकता है, जिससे अनेक शारीरिक तथा मानसिक रोगों से छुटकारा मिल जायेगा।

इसके द्वारा अपनी स्मरण शक्ति को भी विकसित किया जा सकता है। इसके द्वारा संकल्प शक्ति का विकास करके अपने क्रोध, उद्बेश आदि को दूर करके मानसिक शक्ति प्राप्त की जा सकती है।

जितनी देर ध्यान में बैठेंगे, उतनी देर तक शक्ति, प्रसन्नता आदि का अनुभव भी किया जा सकता है। मन तथा उसकी वृत्तियों पर भी थोड़ा-बहुत अंकुश इससे लग जायेगा, किन्तु उनका पूर्ण निरोध नहीं हो सकता। वह तो योगमार्ग से ही प्राप्त है।

इतना अवश्य समझ लेना चाहिए कि योग में वर्णित यम-नियमों का पालन न करने वाले स्वेच्छाचारी , विकारी, दुराचारी व्यक्तियों का प्रवेश किसी भी प्रकार के ध्यान में नहीं हो सकता।

ध्यान के प्रकार

जो साथक हैं, प्रभु के उपासक हैं तथा विधिवत्‌ योगाभ्यास नहीं करते, फिर भी वे ध्यान की उत्कृष्टता को प्राप्त करते हैं, इसमें कारण यह है कि ऐसे व्यक्तियों का जीवन तो पूर्ण नियंत्रित तथा संयमित ही होता है। ये लोग प्रभुभक्त.. होते हैं। अतः इनसे तो गलत कर्मों की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती।

इनकी स्थिति जनसामान्य से अलग है। ध्यान के बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता। dhyan सबके पास है। जन्म से हो सबके पास है। बस अन्तर इतना है कि उनका dhyan बाह्य है, स्थूल है। हमें इसे आन्तरिक बनाना है, तभी यह सूक्ष्म होगा। यह कार्य केवल उपासना से ही सम्भव है। जनसामान्य का ध्यान बाहर रहता है। जीवन कौ सुरक्षा के लिए यह आवश्यक भी है।

उत्पन्न होते ही बच्चे का ध्यान बाहर चला जाता है। यदि उसका ध्यान बाहर न होकर अन्दर ही बना रहे तो कदाचित्‌ वह जीवित ही न रह सके। उसे भूख लगती है, सर्दी-गर्मी लगती है, वह रोता है तथा दूसरों का मैडिटेशन भी अपनी ओर आकृष्ट करता है। सभी प्राणियों ‘ को, उनकी क्रियाओं को वह निपुणता पूर्वक देखता है, उन पर ध्यान देता है।

उसे जिस प्राणी या पदार्थ से सुख मिल रहा है, वह उस पर भी ध्यान देता है। जीवन की सुरक्षा के लिए यह सब अनिवार्य है।

ज्यों-जयों वह बड़ा होता है, त्यों-त्यों वह इसी बाह्य संसार के साथ परिचय करके वह उनके Meditation में ही डूब जाता है। दिन-रात उसी में खो जाता है। बस यहीं गलती होती है। इसी dhyan के द्वारा अन्तर्मुखी dhyan को उद्बुद्ध किया जाता है। आन्तरिक dhyan के बिना हमें उस खजाने का कोई पता नहीं, जो हमारे भीतर दिया पड़ा है। हम उसे भूल चुके हैं। ऐसा हमने जानबूझ कर नहीं किया, अपितु ऐसा होना स्वभाव सिद्ध है।

जन्म से पूर्व गर्भावस्‍था में बच्चे को सब ध्यान रहता है। वहाँ पर उसे पूर्व जन्मों की स्मृतियाँ भी रहती हैं। तथा उस घोर कष्ट का अनुभव भी जिसमें, कि वह उस समय श्वांस ले रहा है। महर्षि यास्काचार्य लिखते हैं कि गर्भ में एक बच्चा पूर्ण होश-हवाश के साथ परमेश्वर से प्रतिज्ञा, करके आता है कि

“सांख्य॑ योग समभ्यस्ये पुरुष वा पञ्चविंशकम्‌!’

हे परमपिता परमात्मा! यदि तू मुझे इस बार इस घोर कष्ट से पार लगादे तो मैं संसार में जाकर सांख्य शासत्र तथा योग शास्त्र का अभ्यास करूँगा। इस अवस्था में उसका ध्यान आन्तरिक है, किन्तु जैसे ही वह जन्म लेता है, उसका dhyan एकदम बदल जाता है। उसका dhyan बाह्य हो जाता है, जो कि जीवन-भर बना रहता है। साधना के द्वारा इसी .ध्यान को अन्तर्मुख किया जाता है।

शरीर की सुरक्षा के लिए तथा जीवन के लिए ध्यान का बाहर जाना आवश्यक है। शरीर में कहीं भी पिडा होती है तो तुरन्त ही हमारा मैडिटेशन वहाँ जाता है-उस पीड़ा को शान्त करने के लिए, छटपटाहट को मिटाने के लिए।

शरीर में, इन्द्रियों में पीड़ा होती है, उनकी अपनी-अपनी आवश्यकताएं हैं, इसलिए मनमें इनका Meditation निरन्तर बना रहता है। केवल अपनी ओर, अर्थात्‌ इस शरीर के स्वामी आत्मा की ओर हमारा dhyan नहीं जाता, क्योंकि न कोई पीड़ा है, न हीं कोई छटपटाहट। साधना के द्वारा dhyan को अन्तर्मुख करके आत्मा की ओर उन्मुख हुआ जाता है।

उसका साक्षात्कार किया जाता है। ध्यान की परिणति यही है कि हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाएं। महर्षि पतंजलि ने इसी बात को

“तदा द्र॒ष्ट: स्वरूपे3वस्थानम्‌’ (योग्सू० 91)

के द्वारा स्पष्ट किया है। अब तक हम बाहर के पदार्थों में उलझे हुए थे, वहाँ सुख खोज रहे थे, उनकी ही प्राप्ति का यत्न कर रहे थे। Meditation के द्वारा मार्ग बिल्कुल बदल जाता है। अब साधक को बाह्म सम्पदा की नहीं, अपितु आन्तरिक, आध्यात्मिक सम्पदा की कामना है। ध्यान उसी की प्राप्ति का मार्ग है। जो कुछ भी जानने योग्य है, साधक उसे अपने अन्दर खोजता है। चाहे उसे आनन्द कहो, परमेश्वर कहो, समाधि कहो या मुक्ति कहो, सब कुछ अन्दर ही मिलता है, इसे पाने का एकमात्र उपाय मैडिटेशन ही है,

अन्य कुछ नहीं, तथा यह भी निश्चित है कि जब तक इच्छाएं बाहर के पदार्थों में भटक रही हैं तब तक Meditation की यात्रा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। उन इच्छाओं को छोड़ना ही होगा। जिस प्रकार कछुआ अपने हाथ-पैर आदि सभी अंगों को अपने खोल में समेट लेता है, उसी प्रकार अपनी सभी कामनाओं को, सभी आकांक्षाओं को समेटकर अन्दर की ओर झांकना होगा, वहाँ तुम्हें प्रकाश मिलेगा। ऐसा प्रकाश, जो तुम्हारे साधना पथ को प्रकाशित करेगा।

इतना अवश्य करना कि तुम किसी कामना को, प्रकाश प्राप्ति की अभिलाषा को, आत्म-दर्शन की इच्छा को भी लेकर अन्दर प्रवेश मत करना। यदि ऐसा किया तो सोच लो कि तुम्हारे बाह्य एवं आन्तरिक मैडिटेशन में कोई अन्तर न रहेगा। बाहर की इच्छा अन्दर भी इच्छा, दोनों में क्या अन्तर रहा। इस इच्छा को, इस कामना को ही तो मिटाना है।

इसके मिटते ही सबकुछ मिट जायेगा। जो मिलेगा स्वतः मिलेगा, तुम किंचितमात्र भी उसकी अभिलाषा मत करना। बुद्ध ने लम्बी एवं कठोर साधना की। साधना से उठने पर लोगों ने पूछा- आपको साधना से मैडिटेशन से, क्या मिला। बुद्ध बोले-मिला तो कुछ नहीं, हाँ, खोया बहुत कुछ है।

सारी इच्छाएं, समस्त वासनाएं निरोहित हो गयी हैं तथा उनके आधार पर चलने वाला संसार भी मेरे से छूट गया है। मुझे इससे कोई प्रयोजन नही रह गया है। लोगों ने कहा-आपको ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। बुद्ध ने कहा नहीं, वह कहीं बाहर से नही आया। वह तो पहले से ही वहाँ विद्यमान था, केवल संसार के पदार्थों ने तथा उनकी इच्छाओं ने उसे तिरोहित कर रखा था।

संसार के पदार्थों का, धन-दौलत का, राज-पाट का ऐसा चमकदार आवरण चढ़ा हुआ था कि आँखें उसे ही देखती थी, कान उसे ही सुनते थे। पूरा ध्यान की बाहर केन्द्रित था। बाहर से हट कर Meditation अन्दर टिक गया तो वह प्रकाश, वहं ज्ञान, वह आनन्द जो वहाँ पहले ही विद्यमान था, प्रादृर्भूत हो गया इसलिए मिला कुछ भी नहीं। जो कुछ मिला है उसे हाथों से नहीं पकड़ा जा सकता है। उसे आँखों से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि आँखों से भी बाहर के पदार्थ ही देखे जा सकते हैं। उसे कानों से सुना भी नहीं जा सकता, क्योंकि कान भी बाह्य शब्दों को ही सुनते हैं। यहाँ तक कि वाणी से उसका वर्णन भी नहीं किया जा सकता क्योंकि वह शब्द का विषय भी नहीं।

मैडिटेशन का मतलब क्या होता है?

इस प्रकार साधक को साधना के द्वारा जो कुछ भी मिलता है, उसे उपनिषद्‌ के शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं-

“स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्मते |

उसे केवल अन्तःकरण के द्वारा ग्रहण किया जा-सकता है। सभी इन्द्रियाँ बाह्यकरण हैं। इनकी पहुँच वहाँ तक नहीं है।

मैडिटेशन में बैठने पर तीन स्थितियाँ उत्पन्न होंगी। शरीर में तमोगुण की प्रधानता होने पर निद्रा आने लगेगी, मैडिटेशन नहीं लग पायेगा। शरीर तथा मन में यदि स्फूर्ति नहीं है, तो ध्यान में बैठने पर प्रायः यही अवस्था होती है। इसलिए शुद्ध स्वच्छ होकर ही उपासना करनी चाहिए, आलस्ययुक्त शरीर से नहीं। दूसरी अवस्था यह है कि मन बाह्य पदार्थों में घूमता रहेगा, उधर ही दौड़ेगा। अत: एक स्थान पर केन्द्रित नहीं होगा।

यह रजोगुण की प्रधानता का सूचक है। यह अवस्था यद्यपि पहली से उत्कृष्ट है, तथापि अनुपयोगी है, क्योंकि मन को ही तो टिकाना है तथा वही चारों ओर भागा फिर रहा है। तीसरी अवस्था यह होगी कि उपासना में बैठते ही थोड़े से प्रयास से ही ध्यान लगने लगेगा।

यह अवस्था सत्वप्रधान है। इस अवस्था में मन एक स्थान पर टिकने लगता हैं। जब पहली दोनों अवस्थाएं न हों, तन-मन में स्फूर्ति हो तथा अपने बैठने तक का भी ध्यान न रहें, तब मन सर्वथा शान्त होकर आनन्द एवं प्रसन्नता से परिपूर्ण होगा। यहअवस्था ईश्वरीय रसानुभूति की है। इस अवस्था में जो आनन्द प्राप्त हो रहा है, वह ईश्वरीय आनन्द ही है।

यह अवस्था लम्बे समय तक भी हो सकती है, तथा थोड़ी देर के लिए भी। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि लम्बे समय तक बैठे रहने पर भी ऐसा ही लगता है कि अभी, थोडी देर ही तो बैठे थे। यह स्थिति मैडिटेशन की दृढ़ता का सूचक है।

हमारे मंस्तिष्क में अनेक प्रकार की तरंगे प्रसारित होती रहती हैं। इनमें से वैज्ञानिकों ने कुछ को अल्फा नाम दिया है तथा कुछ को वीटा। जब मस्तिष्क बिल्कुल शान्त रहता है, मन में कोई भी विचार नहीं होते, तब अल्फा तरंग प्रवाहित होती हैं। ध्यान तथा प्रगाढ़ निद्रा की स्थिति में ऐसा होता है। विदेशों में वैज्ञानिकों ने ऐसी मशीनो का आविष्कार कर लिया है, जो हमारे मस्तिष्क में प्रवाहित होने वाली इन तंरगों की सूचना दे देती हैं।

वैज्ञानिक शोध के द्वारा मापा गया है कि हमारे मस्तिष्क प्रतिक्षण ऊर्जा की तरंगें उत्सर्जित हो रही है। इनकी संख्या प्रति सेकण्ड 85 तक हो सकती हैं। जाग्रत्‌ अवस्था में सामान्यतः मनुष्य का मस्तिष्क 14 से 19 तरंगें प्रति सेकेण्ड विसर्जित करता है।

क्रोध, भय, चिन्ता, ईर्ष्या आदि विकारों की स्थिति में यह संख्या बढ़ जाती है। प्रति सेकेण्ड 21 या 22 तरंगे विसर्जित होने की अवस्था में व्यक्ति बेचैन तथा अस्वस्थ हो जाता है। जैसे-जेसे इन तरंगों की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही हमारी रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होने लगती है।

अपने विचारों से नियंत्रण हटने लगता है। इसलिए आवश्यकता है कि मस्तिष्क से निकलने वाली इन तरंगों की संख्या कम की जाए।

ध्यान के द्वारा यही कार्य किया जाता है। मैडिटेशन के द्वारा हमारा मस्तिष्क पूर्ण विश्राम की स्थिति में होता है। तब मस्तिष्क से निकलने वाली इन तरंगों की संख्या लगभग आधी हो जाती है। इन्हें ही एल्फा नाम दिया गया है। इस अवस्था में मस्तिष्क में अलौकिक विचारों की उत्पत्ति होती है, क्योंकि वह बिल्कुल शान्त होता है। इस अवस्था में किये गये शुभ संकल्प हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं तथा हमें हमारें लक्ष्य की प्राप्ति कराते हैं।

Meditation द्वारा अपने मस्तिष्क को एल्फा स्तर पर लाकर हम अपनी जटिल समस्याओं के समाधान खोज सकते हैं तथा ईश्वरीय प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।

ध्यान कितने घंटे करना चाहिए?

ध्यान में कुछ करना नहीं है, अपितु निष्क्रिय होना है। बाहर से कुछ लेना नहीं, अपितु अन्दर से बाहर उड़ेलना है। उसे खाली करना है, एक दम खाली। जब खाली होगा, मैडिटेशन अपने आप लग जायेगा। जब तक खाली नहीं होगा, मैडिटेशन नहीं लगेगा, स्थिर नहीं होगा। जो कुछ अन्दर जमा है, अब उसमें ही चक्कर काटता रहेगा, उसकी ही माला जपता रहेगा, उधेड-बुन में लगा रहेगा। तक मन की वही दशा होगी जैसे किसी बैल को जबरदस्ती थोड़ी देर के लिए तेल के कोल्हू में जोत दिया जाए। बेचारा पराधीन होकर चक्कर काटता रहेगा।

दीपक से अंधेरे को भगाया जाता है। अंधेरा वहाँ पहले से ही विद्यमान है। दीपक बाद में आया, किन्तु यहाँ उल्टा है। अन्दर पहले से ही प्रकाश विद्यमान है। आत्मा, परमात्मा दोनों प्रकाशमय हैं।

आवरण के कारण वह प्रकाश दिखलायी नहीं देता। मन के सभी विचार, वासनाएं ही वह आवरण हैं जो उस प्रकाश को आगे नहीं बढ़ने देते, रोक लेते हैं। अन्धकार छा जाता है। मैडिटेशन के बिना हमारे मन-बुद्धि-कर्म-जीवन सभी में अन्धकार रहता है। ध्यान से इसी आवरण को दूर किया जाता है आवरण हटते ही Meditation स्वयं लगने लगेगा।

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